वही हर दिन जैसी महफ़िल थी
मौसम भी कमाल था
और मेरा बस
चवन्नी सा एक सवाल था।
हर दिन महफ़िल में
किसी एक को,
मौक़ा मिलता रहा था
सवाल पूछने का;
ढ़ेर सारे जवाबों के
झूले में झूलने का।
मैंने गला साफ़ किया और कहा -
क्या आईने के सामने खड़े होकर
अपने अक्स की आँखों में देखकर,
कभी कह पाये कि
मैं भी बेईमान हूँ !
सवाल तो चवन्नी सा था
लेकिन प्रतिकार लाखों में आया,
बहस करोड़ों में हुई,
ज्ञान अरबों का बंटा।
फिर आयी व्यवहारिकता की खेप,
ख़रबों की दलील में मैं रहा था झेंप!
जब महफ़िल का बाज़ार बंद हुआ तो,
इंट्रा-डे वाले कुछ ज़्यादा ले के निकले
होल्डिंग वाले चुप थे;
प्लान सोच के कुछ अगले।
घर लौटा तो पाया कि
मेरी वो चवन्नी भी ग़ुम हो गयी,
चलो गुल्लक से निकाल लाऊंगा
एक और चमचमाती, खरी और नयी।
फ़िर आईने के सामने गया
प्यार से मेरी आँखों ने
मेरे अक्स की आँखों को छुआ
और शब्द ओठों से प्यार से निकले,
मैं हाड़-मांस का
निरा एक इंसान हूँ,
कई सारी बातों में
मैं भी बेईमान हूँ!
ये व्यवहारिकता है कह
जिसने यह उलझन जोड़ी है,
मैं समझता हूँ प्यारे
यह मेरी कमज़ोरी है।
हाँ, इस स्वीकारोक्ति के बाद
मुझे नींद अच्छी आती है,
यही स्वीकार लेना
मेरा खजाना है, मेरी थाती है।
मेरे पास अब भी
कई चमचमाती चवन्नियां शेष हैं,
महफ़िलों के बाज़ार में
लुटा आने के कारण अशेष हैं।
अगस्त्य
30-05-20 20
पटना