Saturday, May 30, 2020

चवन्नियां कहती हैं

वही हर दिन जैसी महफ़िल थी 
मौसम भी कमाल था 
और मेरा बस 
चवन्नी सा एक सवाल था। 

हर दिन महफ़िल में 
किसी एक को, 
मौक़ा मिलता रहा था 
सवाल पूछने का;
ढ़ेर सारे जवाबों के 
झूले में झूलने का। 

मैंने गला साफ़ किया और कहा -
क्या आईने के सामने खड़े होकर 
अपने अक्स की आँखों में देखकर, 
कभी कह पाये कि 
मैं भी बेईमान हूँ !

सवाल तो चवन्नी सा था 
लेकिन प्रतिकार लाखों में आया, 
बहस करोड़ों में हुई, 
ज्ञान अरबों का बंटा।  

फिर आयी व्यवहारिकता की खेप, 
ख़रबों की दलील में मैं रहा था झेंप! 

जब महफ़िल का बाज़ार बंद हुआ तो, 
इंट्रा-डे वाले कुछ ज़्यादा ले के निकले 
होल्डिंग वाले चुप थे;
प्लान सोच के कुछ अगले। 


घर लौटा तो पाया कि 
मेरी वो चवन्नी भी ग़ुम हो गयी, 
चलो गुल्लक से निकाल लाऊंगा 
एक और चमचमाती, खरी और नयी। 

फ़िर आईने के सामने गया 
प्यार से मेरी आँखों ने 
मेरे अक्स की आँखों को छुआ 
और शब्द ओठों से प्यार से निकले,

मैं हाड़-मांस का 
निरा एक इंसान हूँ,
कई सारी बातों में 
मैं भी बेईमान हूँ!

ये व्यवहारिकता है कह 
जिसने यह उलझन जोड़ी है, 
मैं समझता हूँ प्यारे 
यह मेरी कमज़ोरी है।  

हाँ, इस स्वीकारोक्ति के बाद 
मुझे नींद अच्छी आती है, 
यही स्वीकार लेना 
मेरा खजाना है, मेरी थाती है। 

मेरे पास अब भी 
कई चमचमाती चवन्नियां शेष हैं, 
महफ़िलों के बाज़ार में 
लुटा आने के कारण अशेष हैं।  

अगस्त्य 
30-05-20 20 
पटना 

Tuesday, March 12, 2019

शिकायतें

मेरी भी कुछ शिकायतें रही हैं 
अब भी हैं 
और आगे भी रहेंगी, 
- जैसे तुम्हारी 
- जैसे सबों की

हम प्राणवान हैं 
और शिकायत कर सकते हैं 
या शिकायत कर सकने के कारण 
प्राणवान हैं 

अब इन दो बातों में भी 
शिकायत की पुरज़ोर संभावना है 
कोई पहली लाइन के लिए 
शिकायत कर सकता है
तो कोई दूसरी लाइन के लिए,
कई लोग दोनों लाइनों के लिए। 

शिकायतों में जीवन के बहाने हैं 
मेरे लिए, तुम्हारे लिए, सबके लिए 
इसके लिए अलग से जगह नहीं बनाते हैं  
क्यूंकि, हम ही इन शिकायतों में जगह पाते हैं। 

 "अगस्त्य" 
12/03/2019 पटना 

Sunday, December 23, 2018

" कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी। "

मोहब्बत की बात मत कर, बच्चों की आँखों में देख 
कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी,
दायरों की ही सोच, आसमान को भूल जा
कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी।  

अगर मर के पा सकते, तो कोई बात होती 
इस जिस्म का क्या है, रूह तो साथ होती 
यूँ ही तमाम गुज़रे का हौसला रखना है अभी 
कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी। 

सब मशगूल है,  तो तू क्यूँ बेचैन है 
क्यों अपने होने का मिटता हुआ चैन है, 
उन तक बात पहुंची है, तो वो भी तौलेंगे कभी 
कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी।   

मुमक़िन है तुम्हारा ऐतबार कहीं ऐतराज़ हो 
जो सजाते हो कल का ख़्वाब, वो किसी का आज हो 
तुम भी पा लो ये क्यूँ मानेंगे सभी
कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी।  

ख़्वाबों की बात मत कर, बच्चों की आँखों में देख 
कि तुझे, ज़िंदा रहना है अभी,
फ़ुर्क़त की ही सोच, वस्ल को भूल जा
कि तुझे ...., ज़िंदा रहना है अभी। 


निर्मल अगस्त्य 
23/12/2018, पटना 

Sunday, November 4, 2018

"वो कह रहा था"


"वो कह रहा था"

                                                         "निर्मल अगस्त्य" 


वो वहाँ...
दूर वहाँ...
मिट्टी के टीले पर खड़ा
नीम से कह रहा था कि
देवताओं कि भव्यता
अब उसे उबाऊ लगने लगी है
और कहते-कहते
हवा में अंगुलियाँ घुमा कर 
वह लिख भी रहा था।


आसमान - सिटकिनी !
बादल - यवनिका !
सन्दूक - देवता !
उसकी उँगलियाँ यह सब
हवा में उकेर रही थीं


गहरी सांसें ले रहा था वह
और वहीं था,
और कह रहा था कि
बिना आवेदन दिए
हवा को जी भर महसूस करने में
बड़ा आनन्द है,
और कितना खुलापन है यहाँ
कुलदेवता की कोठरी से
भाग कर आने के बाद
और वह नीम के तने को
अभी-अभी स्कूल से
लौट कर आये बच्चे की तरह
बेहिचक आलिंगन कर सकता है।


उसका कोई फ़िक्रमन्द नहीं था 
और इसी वज़ह से ख़ुश था कि
वह हिसाब-क़िताब कि दुविधा से परे है,
वह दुःख में निश्चित ही था  
लेकिन निश्चिन्त था भीड़ से,
तालियों की गड़गड़ाहट से।
अकेला था तो भरा-भरा था !
ख़ुद को पढ़ पा रहा है


आदमी - देवता !
वैराग्य - तमाशा !
दुःख - स्वतन्त्रता !
उसकी उँगलियाँ यह सब
हवा में उकेर रही थीं


वह वहीं पर खड़ा
नीम से कह रहा था कि
उसके पास भी घर है
और उसके घर में भी
देवताओं की अच्छी ख़ासी मण्डली है
जिन्हें, धूप -दीप दिखने के क्रम में
एक बार उसका हाथ जल भी चुका है।  
पड़ोसियों के घरों में भी 
कमोबेश यही स्थिति है
और लगभग सबों के यहाँ 
कोई एक एक व्यक्ति 
अपना हाथ जल चुका है। 


वह अब तक वहीं...
उसी नीम के नीचे कह रहा था कि 
ये देवता भी कितने स्वार्थी हो गए हैं 
जो बस अपने अटारियों में बैठे 
इन्तज़ार करते रहते हैं 
कि कब हममें से  
किसी का हाथ जल जाए!
हालाँकि, उनके पास पूरा समय है कि 
वे अपने पड़ोसी देवों और 
रिश्तेदार देवों के घर 
भेंट-मुलाक़ात और 
दुआ सलाम के लिए जाएँ । 
लेकिन क्या करें,
उन्हें भी अपने पसन्द के भाटों को 
सुनने की आदत जो पड़ गयी है। 


प्रसाद - मतलब !
स्वार्थ - भय !
भक्ति - चौहद्दी !
उसकी उँगलियाँ यह सब
हवा में उकेर रही थीं


दसों दिशाओं में शब्द 
उभर कर पसर रहे थे 
और वह कह रहा था कि 
देवता भी जब आलसी 
और घरघुसना हो चुके हैं 
तो हाथ जलने कि बजाय,
खुले खेतों और वादियों कि तरफ़ आकर,
दिन में कम से कम एक बार
आसमान को धन्यवाद कहना,
हवा को पहली प्रेमिका के 
शरीर की ख़ुश्बू कि तरह 
सीने में भर लेना,
नीम से कुछ बोल बतिया लेना 
मिट्टी के टीले पर चढ़ कर 
हवा में लिख लेना 
कहीं ज़्यादा भव्य और सुन्दर है। 


महल - पालतू !
दीप - रज्जू !
आरती - नीम !
उसकी उँगलियाँ यह सब
हवा में उकेर रही थीं


वो अब भी वहीं था 
वहीं पर अड़ा,
उसी नीम के पेड़ के नीचे 
मिट्टी के टीले पर चढ़ा,
बस्स... अभ्भी... तो था 
और बस कह ही तो रहा था !

"निर्मल अगस्त्य" 
25-11-2015 
पटना 

Tuesday, July 31, 2018

(पर्दा)

                                            ऋचा श्रीवास्तव पटना 
                                            01-08-2018
------------------------------------------ 
(पर्दा)
जब नहीं हटाते हम 
खिड़की, दरवाज़ों और शीशों पर 
पड़ा हुआ गहरा पर्दा 
तब नहीं आने देना चाहते हम

बाहरी हवा और रौशनी को 
अपने घरों के अंदर 
जब सोच लेते हैं हम कि 
जो हो रहा है बाहर,

उसका नहीं है कोई नाता हमारे अंदर से 
तब उसी समय एक मोटा सा पर्दा 
पड़ जाता है हमारी अक़्ल पर भी 
छा जाता है एक घना अँधेरा 

और हम डूब जाते हैं 
अपने ही भीतर के किसे कुएं में 
हमेशा-हमेशा के लिए 
और बदल जाती है हमारी पूरी ज़िन्दगी!

Sunday, April 8, 2018

क्या ऐसा कर पाओगे?

कुछ चीज़ें पूरी तरह नहीं भर पातीं
जैसे - मेरे जैसे लोगों की पीठ,
और कुछ चीज़ें हमेशा मौजूद होती हैं
जैसे ख़ंजर, शिकायतें और बद्दुआयें!

मैं सामने से एक इंसान हूँ

और पीठ के तरफ़ एक शाहकार,
जिसे खंज़रों और नेज़ों ने संवारा है
दुआओं से ज़्यादा बददुआओं ने निखारा है।

हो सके तो कभी सामने से आओ

देखो उस इंसान को कभी वैसे
जैसे किसी नहीं होने को देखते हो
या कुछ हो जाने को देखते हो।

हो जाने और और नहीं होने के बीच

हम सभी हैं, सभी के सभी
बस किसी-किसी के पास पीठ है
और कईओं के पास बस ख़ंजर हैं।

निर्मल अगस्त्य
08-04-2018
पटना।

Saturday, April 1, 2017

"कभी-कभी"                              "निर्मल अगस्त्य"
-------------------------------------------------------------------
कभी-कभी हम उतना नहीं जी पाते 
जितना,
कहीं किसी मोड़, किसी गली 
या किसी दरवाज़े से होकर 
गुज़रते हुए जी जाते हैं। 
चाँद में छिपी चवन्नी,
सूरज में दबी अठन्नी,
बादलों में तैरता बताशा,
एक टिकोले को टटोलती 
गुलेल की लचकती सी आशा !

भीड़ के आपा-धापी में 
मुस्कुराता एक चेहरा,
किसी के होने से पहले
अपनेपन का घेरा,
हर इन्सान बस एक ख़्वाब है 
जो किसी की नींद में 
उतर तो सकता है,
जी नहीं सकता!

तब भी यही होता है 
कि हम उतना
जग के नहीं जी पाते, 
जितना ख़्वाब में जी जाते हैं। 

पन्द्रह पैसे का पोस्टकार्ड, 
चार आने की अन्तर्देसी और 
एक रुपये के लिफ़ाफ़े में 
शब्द नहीं जाते थे कभी,
एहसासों से बुनी हुई 
ज़िन्दगी जाती थी।
 जिसका एक सिरा 
चिठ्ठी भेजने वाले के हाथ होता था 
और एक सिरा 
चिठ्ठी पाने वाले के हाथ।  


हम बोल के कहाँ उतना कह पाते हैं 
जितना लिख के कह पाते थे। 

बड़ी ख़ुशी होती है 
जब कोई 
बहुत देर तक घन्टी बजने के बाद 
फ़ोन उठाता है,


                                                  
और जम्हाई ले-ले कर 
देर तक बतियाता है।                                                   
जब दिल बड़ा हो                                                   
तो बिल कम लगने लगता है                                                    
और जब                                                
दूरियाँ बहुत छोटी हों                                                  
तो बैलेंस बड़ा लगने लगता है। 

कभी-कभी हम उतना नहीं समझ पाते 
जितना दिल चुपके से समझ जाता है। 
कभी-कभी हम शब्दों को 
उतना नहीं पढ़ पाते
जितना वे कहना चाहते हैं,
लेकिन हम उन्हें पढ़ के अक़्सर 
वहीं छोड़ आते हैं। 
और जो पढ़ना बाक़ी रह जाता है 
वही अलफ़ाज़
मन में बस जाते हैं।    

"निर्मल अगस्त्य"